शंख भस्म( १-३ गुंजा )
प्रकार ?
=>
द्विधा स दक्षिणावर्तो वामावर्तो... (र.चं)
ग्राह्य ?
=>
द्विधा स दक्षिणावर्तो वामावर्तो शुभेतरः ।
अशुद्धो गुणदो नैव शुद्धश्च स गुणप्रदः ॥
दक्षिणावर्त शंख शुभ असतो.
अशुद्ध अग्राह्य
शुद्ध ग्राह्य
शंखशुद्धी ?
=>
अम्लैः सकांजिकैः च एव दोला स्विन्नः स शुद्धति ॥ (र.चं)
अम्लैः = निम्बूरस,इ.
कांजि = कांजी
दोला = दोलायंत्र
स्विन्न = शिजवणे
किती वेळ ? = १ प्रहर
शंखभस्म निर्माण ?
=>
१. वन्हौ प्रोत्फुल्लयेत्
किंवा
२. सम्यक् लघुपुटे पचेत् ।
शुद्ध शंख भस्म स्वरुप ?
=>
कुन्दवत् जायते भस्म सर्वरोगेषु योजयेत् ।
============================== ============॥
वृद्ध वैद्याधार से शंख भस्म निर्माण की कृती =>
दक्षिणावर्ती शंख ले । यह शुभ होता है ।
इस शंख के टुकडे कर ले ।
निम्बु रस में इन टुकडो को २४ घण्टे भिगोके रखे ।
स्वच्छ जल से प्रक्षालन कर ले ।
धूप में सुखोए ।
मृत्तीकापात्र में रख मातकापड कर गजपुट दे ।
स्वांगशीत होने दे ।
उस में कुमारी स्वरस डाल अच्छी तरह मिश्रण करे ।
धूप में सुखोए ।
सुखने पर फिर से गजपुट दे ।
इससे संगजिरे जैसा श्वेतवर्णी एवं सूक्ष्म मृदुस्पर्शी शंख भस्म प्राप्त होता है ।
============================== ============॥
ग्रंथोक्त गुणधर्म=>
शंखक्षारो हिमो ग्राही ग्रहणारेकनाशनः ।
नेत्रपुष्पहरो वर्ण्यः तारुण्यपिटिकाप्रणुत् ।
दक्षिणावर्तशंखस्तु त्रिदोषघ्नः शुचिर्निधिः ॥
ग्रह-अलक्ष्मी-क्षय-क्ष्वेडम्- अतिक्कक्षयाक्षमीः ।
(यो.र.)
============================== ============॥
शंखभस्म यह शंख क्षार ही है ।
क्षार के काफी सारे गुणधर्म इस में आयें है ।
शंखभस्म एवं कपर्दिक भस्म इनमें काफी गुणसादृश्यता है ।
दोनोही सेंद्रिय चुनखडीके कल्प है ।
पर इन्हमें शंख के कुछ विशेष गुण भी है । उनका उल्लेख आगे किया जायेगा ।
शंख भस्म ग्राही है । यह स्तंभन करता है । इसलिये अतीसार विशेषतः पक्वातीसार में उपयुक्त होता है ।
ग्रहणी व्याधी में बार बार द्रवरेच होते हो तो विशेष उपयुक्त ।
[ सशूल (कोष्ठशूल) सद्रव अल्पाल्प मल प्रवृत्ती ] यह उत्तम अवस्था है शंख भस्म के उपयोग के लिये ।
शंखोदर योग = { शंखभस्म + टंकण भस्म + अफू + जायफळ } = पक्वातीसार का योग ।
पित्तज कोष्ठशूल
पित्तज अतीसार
कफ-पित्तज कोष्ठशूल
विष्टब्ध/विदग्ध अजीर्ण
लक्षणानि =>
आध्मान
आनाह
शूल = तडक निघाल्याप्रमाणे वाटते.
कोष्ठ स्तैमित्य = अन्न स्थिर पडल्याप्रमाणे वाटते
विदग्ध उद्गार = करपट ढेकर
मधुर उद्गार = गोड ढेकर
शंखभस्मस्य कार्य
चिकित्सा तत्व => उदर आध्मान नाश
अन्न पाचन वृद्धी
उदरस्थ वात शमन
अपक्ति जन्य उदरशूल
स्थान दोष चिकित्सा अनुपान
१. आमाशय => पित्तज => @ गोघृत
२. पक्वाशय => वातज => @ निम्बु स्वरस
रसाजीर्ण / रसशेषाजीर्ण !
अनार्ह => पित्त प्रकृती रुग्ण !
यकृत-प्लिहा दुष्टी समुत्पन्न विकार => क्षारो हि याती माधुर्यम् ।
यकृत्-प्लिहा वृद्धि => क्षारो हि याती माधुर्यम् ।
+ मलावष्टम्भ => + विरेचक औषध देणे.
उदरस्थ गुल्म
अष्ठीला
कालज अतीसार
विषूचिका
जंतुज विषूचिका (कॉलरा) प्रारंभिक तीव्र वेग उपशमानंतर वापर उपशयकारक.
लक्षणानि => द्रवरेच , छर्दी उपशय
अल्प द्रवरेच + दौर्बल्य
चिकित्सा => शंखभस्म + माक्षिक भस्म
नेत्र फूल पडणे => रोपणधर्मी म्हणून उपयुक्त.
तारुण्यपीटिका => उत्तम औषध.
दोषघ्नता => पित्त
दूष्य => रस रक्त अस्थिअ
स्थान गामित्व => यकृत् प्लिहा उदुंक ग्रहणी पक्वाशय नेत्र मुख
संदर्भ आयुर्वेदीय औषधिगुणधर्मशास्र भाग १ ते ५
http://www.facebook.com/waghmare.prashant
वैद्य प्र. प्र. व्याघ्रसूदन
प्रकार ?
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द्विधा स दक्षिणावर्तो वामावर्तो... (र.चं)
ग्राह्य ?
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द्विधा स दक्षिणावर्तो वामावर्तो शुभेतरः ।
अशुद्धो गुणदो नैव शुद्धश्च स गुणप्रदः ॥
दक्षिणावर्त शंख शुभ असतो.
अशुद्ध अग्राह्य
शुद्ध ग्राह्य
शंखशुद्धी ?
=>
अम्लैः सकांजिकैः च एव दोला स्विन्नः स शुद्धति ॥ (र.चं)
अम्लैः = निम्बूरस,इ.
कांजि = कांजी
दोला = दोलायंत्र
स्विन्न = शिजवणे
किती वेळ ? = १ प्रहर
शंखभस्म निर्माण ?
=>
१. वन्हौ प्रोत्फुल्लयेत्
किंवा
२. सम्यक् लघुपुटे पचेत् ।
शुद्ध शंख भस्म स्वरुप ?
=>
कुन्दवत् जायते भस्म सर्वरोगेषु योजयेत् ।
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वृद्ध वैद्याधार से शंख भस्म निर्माण की कृती =>
दक्षिणावर्ती शंख ले । यह शुभ होता है ।
इस शंख के टुकडे कर ले ।
निम्बु रस में इन टुकडो को २४ घण्टे भिगोके रखे ।
स्वच्छ जल से प्रक्षालन कर ले ।
धूप में सुखोए ।
मृत्तीकापात्र में रख मातकापड कर गजपुट दे ।
स्वांगशीत होने दे ।
उस में कुमारी स्वरस डाल अच्छी तरह मिश्रण करे ।
धूप में सुखोए ।
सुखने पर फिर से गजपुट दे ।
इससे संगजिरे जैसा श्वेतवर्णी एवं सूक्ष्म मृदुस्पर्शी शंख भस्म प्राप्त होता है ।
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ग्रंथोक्त गुणधर्म=>
शंखक्षारो हिमो ग्राही ग्रहणारेकनाशनः ।
नेत्रपुष्पहरो वर्ण्यः तारुण्यपिटिकाप्रणुत् ।
दक्षिणावर्तशंखस्तु त्रिदोषघ्नः शुचिर्निधिः ॥
ग्रह-अलक्ष्मी-क्षय-क्ष्वेडम्-
(यो.र.)
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शंखभस्म यह शंख क्षार ही है ।
क्षार के काफी सारे गुणधर्म इस में आयें है ।
शंखभस्म एवं कपर्दिक भस्म इनमें काफी गुणसादृश्यता है ।
दोनोही सेंद्रिय चुनखडीके कल्प है ।
पर इन्हमें शंख के कुछ विशेष गुण भी है । उनका उल्लेख आगे किया जायेगा ।
शंख भस्म ग्राही है । यह स्तंभन करता है । इसलिये अतीसार विशेषतः पक्वातीसार में उपयुक्त होता है ।
ग्रहणी व्याधी में बार बार द्रवरेच होते हो तो विशेष उपयुक्त ।
[ सशूल (कोष्ठशूल) सद्रव अल्पाल्प मल प्रवृत्ती ] यह उत्तम अवस्था है शंख भस्म के उपयोग के लिये ।
शंखोदर योग = { शंखभस्म + टंकण भस्म + अफू + जायफळ } = पक्वातीसार का योग ।
पित्तज कोष्ठशूल
पित्तज अतीसार
कफ-पित्तज कोष्ठशूल
विष्टब्ध/विदग्ध अजीर्ण
लक्षणानि =>
आध्मान
आनाह
शूल = तडक निघाल्याप्रमाणे वाटते.
कोष्ठ स्तैमित्य = अन्न स्थिर पडल्याप्रमाणे वाटते
विदग्ध उद्गार = करपट ढेकर
मधुर उद्गार = गोड ढेकर
शंखभस्मस्य कार्य
चिकित्सा तत्व => उदर आध्मान नाश
अन्न पाचन वृद्धी
उदरस्थ वात शमन
अपक्ति जन्य उदरशूल
स्थान दोष चिकित्सा अनुपान
१. आमाशय => पित्तज => @ गोघृत
२. पक्वाशय => वातज => @ निम्बु स्वरस
रसाजीर्ण / रसशेषाजीर्ण !
अनार्ह => पित्त प्रकृती रुग्ण !
यकृत-प्लिहा दुष्टी समुत्पन्न विकार => क्षारो हि याती माधुर्यम् ।
यकृत्-प्लिहा वृद्धि => क्षारो हि याती माधुर्यम् ।
+ मलावष्टम्भ => + विरेचक औषध देणे.
उदरस्थ गुल्म
अष्ठीला
कालज अतीसार
विषूचिका
जंतुज विषूचिका (कॉलरा) प्रारंभिक तीव्र वेग उपशमानंतर वापर उपशयकारक.
लक्षणानि => द्रवरेच , छर्दी उपशय
अल्प द्रवरेच + दौर्बल्य
चिकित्सा => शंखभस्म + माक्षिक भस्म
नेत्र फूल पडणे => रोपणधर्मी म्हणून उपयुक्त.
तारुण्यपीटिका => उत्तम औषध.
दोषघ्नता => पित्त
दूष्य => रस रक्त अस्थिअ
स्थान गामित्व => यकृत् प्लिहा उदुंक ग्रहणी पक्वाशय नेत्र मुख
संदर्भ आयुर्वेदीय औषधिगुणधर्मशास्र भाग १ ते ५
http://www.facebook.com/waghmare.prashant
वैद्य प्र. प्र. व्याघ्रसूदन
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