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सलाम मराठी परंपरेला आणि महाराष्ट्राच्या मराठी मातीला

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Saturday, December 31, 2011

॥ शंख भस्म ॥

शंख भस्म( १-३ गुंजा )

प्रकार ?
=>
द्विधा स दक्षिणावर्तो वामावर्तो...     (र.चं)

ग्राह्य ?
=>
द्विधा स दक्षिणावर्तो वामावर्तो शुभेतरः ।
अशुद्धो गुणदो नैव शुद्धश्च स गुणप्रदः ॥

दक्षिणावर्त शंख शुभ असतो.
अशुद्ध     अग्राह्य
शुद्ध     ग्राह्य

शंखशुद्धी ?
=>
अम्लैः सकांजिकैः च एव दोला स्विन्नः स शुद्धति ॥    (र.चं)

अम्लैः     =    निम्बूरस,इ.
कांजि    =    कांजी
दोला    =    दोलायंत्र
स्विन्न    =    शिजवणे
किती वेळ ?    =    १ प्रहर

शंखभस्म निर्माण ?
=>
१.    वन्हौ प्रोत्फुल्लयेत्‌
किंवा
२.    सम्यक्‌ लघुपुटे पचेत्‌ ।

शुद्ध शंख भस्म स्वरुप ?
=>
कुन्दवत्‌ जायते भस्म    सर्वरोगेषु योजयेत्‌ ।

==========================================॥

वृद्ध वैद्याधार से शंख भस्म निर्माण की कृती =>

दक्षिणावर्ती शंख ले । यह शुभ होता है ।
इस शंख के टुकडे कर ले ।
निम्बु रस में इन टुकडो को २४ घण्टे भिगोके रखे ।
स्वच्छ जल से प्रक्षालन कर ले ।
धूप में सुखोए ।
मृत्तीकापात्र में रख मातकापड कर गजपुट दे ।
स्वांगशीत होने दे ।
उस में कुमारी स्वरस डाल अच्छी तरह मिश्रण करे ।
धूप में सुखोए ।
सुखने पर फिर से गजपुट दे ।
इससे संगजिरे जैसा श्वेतवर्णी एवं सूक्ष्म मृदुस्पर्शी शंख भस्म प्राप्त होता है ।
==========================================॥

ग्रंथोक्त गुणधर्म=>

शंखक्षारो हिमो ग्राही ग्रहणारेकनाशनः ।
नेत्रपुष्पहरो वर्ण्यः तारुण्यपिटिकाप्रणुत्‌ ।
दक्षिणावर्तशंखस्तु त्रिदोषघ्नः शुचिर्निधिः ॥
ग्रह-अलक्ष्मी-क्षय-क्ष्वेडम्‌-अतिक्कक्षयाक्षमीः ।
(यो.र.)

==========================================॥

शंखभस्म यह शंख क्षार ही है ।

क्षार के काफी सारे गुणधर्म इस में आयें है ।
शंखभस्म  एवं कपर्दिक भस्म इनमें काफी गुणसादृश्यता है ।
दोनोही सेंद्रिय चुनखडीके कल्प है ।
पर इन्हमें शंख के कुछ विशेष गुण भी है । उनका उल्लेख आगे किया जायेगा ।

शंख भस्म ग्राही है । यह स्तंभन करता है । इसलिये अतीसार विशेषतः पक्वातीसार में उपयुक्त होता है ।
ग्रहणी व्याधी में बार बार द्रवरेच होते हो तो विशेष उपयुक्त ।
[ सशूल (कोष्ठशूल) सद्रव अल्पाल्प मल प्रवृत्ती ] यह उत्तम अवस्था है शंख भस्म के उपयोग के लिये ।

शंखोदर योग = { शंखभस्म + टंकण भस्म + अफू + जायफळ } = पक्वातीसार का योग ।

पित्तज कोष्ठशूल
पित्तज अतीसार
कफ-पित्तज कोष्ठशूल

विष्टब्ध/विदग्ध अजीर्ण

लक्षणानि    =>
    आध्मान
    आनाह
    शूल    =    तडक निघाल्याप्रमाणे वाटते.
    कोष्ठ स्तैमित्य    =    अन्न स्थिर पडल्याप्रमाणे वाटते
    विदग्ध उद्गार    =    करपट ढेकर
    मधुर उद्गार    =    गोड ढेकर

शंखभस्मस्य कार्य  
चिकित्सा तत्व    =>    उदर आध्मान नाश
                             अन्न पाचन वृद्धी
                             उदरस्थ वात शमन

अपक्ति जन्य उदरशूल
    स्थान        दोष    चिकित्सा अनुपान
१.    आमाशय    =>    पित्तज    => @ गोघृत
२.    पक्वाशय    =>    वातज    => @ निम्बु स्वरस

रसाजीर्ण / रसशेषाजीर्ण !

अनार्ह     =>    पित्त प्रकृती रुग्ण !

यकृत-प्लिहा दुष्टी समुत्पन्न विकार     =>    क्षारो हि याती माधुर्यम्‌ ।

यकृत्‌-प्लिहा वृद्धि        =>    क्षारो हि याती माधुर्यम्‌ ।
+ मलावष्टम्भ            =>    + विरेचक औषध देणे.

उदरस्थ गुल्म
अष्ठीला    

कालज अतीसार
विषूचिका
जंतुज विषूचिका (कॉलरा)        प्रारंभिक तीव्र वेग उपशमानंतर वापर उपशयकारक.
लक्षणानि    =>    द्रवरेच , छर्दी उपशय
        अल्प द्रवरेच + दौर्बल्य
चिकित्सा    =>    शंखभस्म + माक्षिक भस्म

नेत्र फूल पडणे    =>    रोपणधर्मी म्हणून उपयुक्त.

तारुण्यपीटिका    =>    उत्तम औषध.

दोषघ्नता    =>    पित्त
दूष्य    =>    रस रक्त अस्थिअ
स्थान गामित्व    =>    यकृत्‌ प्लिहा उदुंक ग्रहणी पक्वाशय नेत्र मुख

संदर्भ आयुर्वेदीय औषधिगुणधर्मशास्र भाग १ ते ५

http://www.facebook.com/waghmare.prashant
वैद्य प्र. प्र. व्याघ्रसूदन

  • 9867888265




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